Dohe kabir das | kabir ji ke dohe| कबीर दास के दोहे

Dohe kabir das | kabir ji ke dohe| कबीर दास के दोहे

Dohe kabir das | kabir ji ke dohe| कबीर दास के दोहे

कबीर दास के दोहे

  • कबीर दास एक भक्ति आंदोलन के ऐसे संत थे जिन्होंने जाति, धर्म और सामाजिक बंधनों को तोड़कर मानवता, प्रेम और सच्ची भक्ति का संदेश दिया। वे अपने समय के महान समाज सुधारक और कवि थे जिनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं।

दोहा – गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
     बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥

अर्थ
जब गुरु और भगवान दोनों आपके सामने खड़े हों, तो सबसे पहले किसके चरण स्पर्श किए जाएँ? मैं तो अपने गुरु के बलिदान जाता हूँ, क्योंकि उसी ने मुझे भगवान से मिलाया है।

दोहा – काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
      पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥

अर्थ
जो काम भविष्य के लिए टाल रहे हो, उसे आज ही कर लो।
जो काम आज के लिए रखा है, उसे अभी कर दो। क्योंकि एक पल में हीपरलय हो
सकता है, फिर तुम उसे कब कर पाओगे?

दोहा – दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
     जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय॥

अर्थ
जब कोई दुखी होता है, तब सभी ईश्वर का स्मरण करते हैं, भजन करते हैं।
लेकिन सुख के समय में कोई ईश्वर को याद नहीं करता। यदि कोई सुख के समय भी
ईश्वर का स्मरण करता रहे, तो उसे दुःख कभी नहीं सताएगा।

दोहा – यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
       शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥

अर्थ
यह शरीर विष की बेल के समान है, यानी यह नश्वर, मोह-माया और बुराइयों से भरा है।
गुरु अमृत का भंडार हैं। यदि अपना सब कुछ भी देना पड़े, तो भी गुरु को पाना
चाहिए। फिर भी वह सौदा सस्ता है, यानी गुरु के सान्निध्य में सब कुछ न्योछावर करना
भी कम है।

दोहा – सब धरती कागज करूं, सब गगन पन्ना।
        जो कुछ भी मैं कहूं, सच वही मेरा।

अर्थ
मैं पूरी धरती को कागज बना लूं। और पूरा आकाश पन्ना बना दूं।
तब भी जो कुछ मैं कहूं, वही मेरी सच्चाई होगी।

दोहा – ऐसी वाणी बोलिये, मन का आप खोय।
    औरन को सीतल करे, आपहु सीतल होय॥

अर्थ
ऐसी मीठी और मधुर वाणी बोलनी चाहिए कि बोलते समय स्वयं का अहंकार और मन
का विकार भी मिट जाए। ऐसी वाणी दूसरों को भी सुखद कर दे और स्वयं को भी शांति का अनुभव हो।

दोहा – बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
       पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

अर्थ
बड़े होने का क्या फायदा, जैसे खजूर का पेड़ होता है।
जो राहगीर को छाया भी नहीं दे पाता और जिसके फल भी बहुत ऊँचाई पर लगते हैं।

(यदि कोई व्यक्ति बड़ा होकर भी दूसरों की मदद नहीं करता, तो उसके बड़े होने का
कोई अर्थ नहीं है.)

दोहा – निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
    बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

अर्थ
जो व्यक्ति आपकी निंदा करता है, उसे अपने निकट रखना चाहिए।
जैसे आंगन में पेड़ लगाकर छाया बनाते हैं, वैसे ही अपने पास निंदक को रखना
चाहिए। बिना किसी बाहरी सफाई के वह आपके स्वभाव को शुद्ध और निर्मल कर देता है।

दोहा – बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
        जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥

अर्थ
जब मैं इस संसार में बुराई खोजने निकला, तो मुझे कोई भी बुरा व्यक्ति नहीं मिला।लेकिन जब मैंने अपने दिल में झाँककर देखा, तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
{आत्म-चिंतन से ही सच्चा परिवर्तन संभव है।}

दोहा – माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे।
       इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे॥

अर्थ
मिट्टी कुम्हार (घड़ा बनाने वाला) से कहती है।
तू मुझे आज अपने पैरों से रौंद रहा है, आकार दे रहा है। लेकिन एक दिन ऐसा आएगा
जब मैं तुझे रौंदूंगी, अर्थात् जब तू मरकर फिर इसी मिट्टी में मिल जाएगा।

दोहा – चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय।
     दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥

अर्थ
कबीर दास जी चक्की को चलते हुए देखकर रो पड़े।
चक्की के दो पाटों के बीच में जो भी आता है, वह साबुत नहीं बचता, यानी सब कुछ पीसकर नष्ट हो जाता है।

दोहा – मलिन देखी करि कंचन कर डार।
  मन को मल न देखिया, जो देखा सो पार॥

अर्थ
जब लोग किसी को बाहरी रूप से अशुद्ध देखते हैं, तो उसके साथ छुआछूत करने लगते हैं, जैसे सोने को भी फेंक देते हैं। लेकिन अपने मन की अशुद्धता नहीं देखते, और जो अपने मन की मलिनता देख लेता है, वही जीवन के पार (मुक्ति) हो जाता है।

दोहा – मन के मते न चलिए, मन के मते अनेक।
 जो मन को मन दे चले, तो साधु न कहिए एक॥

अर्थ
अपने मन के विचारों और इच्छाओं के अनुसार नहीं चलना चाहिए। क्योंकि मन के
विचार असंख्य और बदलते रहते हैं। जो व्यक्ति अपने मन के पीछे-पीछे चलता है, उसे सच्चा साधु या ज्ञानी नहीं कहा जा सकता।

दोहा – मनवा तो पंछी भया उड़ के चला आकाश।
       ऊपर से ही गिर पड़ा, मन माया के पास॥

अर्थ
यह मन पक्षी की तरह है, जो ऊँचे-ऊँचे आदर्शों और भावनाओं के आकाश में उड़ान भरता है। लेकिन जैसे ही मन ऊपर पहुँचता है, वह फिर से संसारिक इच्छाओं, मोह-माया के पास गिर जाता है।

दोहा – माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
        आसा तृष्णा न मुई, यों कहि गए कबीर॥

अर्थ
कबीर दास जी कहते हैं कि न तो संसारिक मोह मरती है न ही इच्छाएँ, वासनाएँ मरती है केवल शरीर ही बार-बार मरता है

{मनुष्य अनेक बार जन्म लेता है, शरीर बदलता है, लेकिन उसकी आशा और लालच,
इच्छाएँ कभी नहीं मरतीं। वह हर जन्म में इन्हीं के जाल में फँसा रहता है}

दोहा – मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेर।
       तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेर॥

अर्थ
मेरे पास, मेरे भीतर, कुछ भी मेरा नहीं है। जो भी कुछ है, वह सब ईश्वर का है।
मैं तेरा ही तुझको अर्पण करता हूँ। इसमें मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है।

दोहा – कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होय।
     सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय॥

अर्थ
कबीर दास जी कहते हैं कि वही संपत्ति, पुण्य, सद्कर्म इकट्ठा करो, जो मृत्यु के बादभी
काम आए। सिर पर धन की गठरी बाँधकर किसी को भी जाते (मरते) नहीं देखा। यानी कोई भी सांसारिक धन मृत्यु के बाद साथ नहीं जाता।

दोहा – जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
       जो है जा को भावना, सो ताहि के पास॥

अर्थ
कमल का फूल जल में खिलता है। चंद्रमा आकाश में रहता है। जो कोई भी सच्चे मन
से किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति भावना रखता है, वह उसी के पास होता है।

  • कबीर ने रामानंद जी को अपना गुरु माना, जिन्होंने उन्हें भक्ति और ध्यान का महत्व सिखाया।
  • वे जीवन भर सत्य, प्रेम, भक्ति और मानवता के संदेश के लिए समर्पित रहे और सामाजिक भेदभाव, जाति व्यवस्था और धार्मिक आडंबरों का कड़ा विरोध किया

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